د. بشار خليف - تعالي.. لن يمكث ندائي طويلا ً

تذكري
أنت ِ مني
لست ِ من كل حدب ٍ
و صوب ْ .

***

مدّدتك ِ قلّصتك ِ
كأنك ِ موجة
الليل
و النهار .

***

طوقيني
كأني بقية
من رحيل .

***

تذكري
لولا ذلك الوتد
ما قامت ْ
قيامة خيمتك ِ .

***

كلما منحتك ِ الوتر
زدت ِ
في طنبورك ِ
نغما ً.

***

أعترف ُ الآن
فرّقتك ِ تماما ً
حتى أَسود .

***

و أعلم ُ
أنك تخرجين مني
على رؤوس
أصابعك .

***

لا تُحنّي يديك ِ
أنا لن أفضي
إليك ِ.

***

الآن
أختال ُ بين أصابعك ِ
عاشقاً
لوّنته ُ أظافرك .

***

لا
نحن لسنا
على النقيض
نحن النقيض
تماما ً.

***

حاوليني
لا الشك شك ٌ
و لا اليقين
يقيني .

***

أعترف ُالآن
أفتقدُ فيك ِ
ما يزيدُ عنك ِ.

***

أنت ِ
في قمة سؤال ٍ
لن أجيب
عليه .

***

أنت ِ
مثل الحقيقة
ما قبلك ِ وهم ٌ
ما بعدك
وهم أيضا ً.

***

تملئين وجهي بكفيك ِ
يزداد رأسي
فكرتين .

***

يوماً ما
ستدركين كَم ْ
تصببت ُ
عرقك ِ .

***

أجمل ُ
ما في ضمّتي
أنها تأخذ أَلِفي
إلى أعماق
فتْحتك .

***

نعم
أخشى مرورك ِ
على رؤوس
أصابعي .

***

حتى
بين مسافاتنا
يولد ُزمن جديد .

***

هكذا
كلما جلت ُ فيك ِ
عثرت ِ على
مرادك ِ .

***

أرتاد ُ شواطئك ِ
كي أسترد َ
ميلاد عريّي .

***

كلما
تهادت ْسفينتك ِ
مددت ُ لها
ياطري .

***

أستبقيك ِ
في ملامحي
كأنك ِ وجهي
الأخير .

***

نعم ْ
جئتك ِ بعود نعناع ٍ
على غرار
طبيعتك .

***


تعالي
لا يعبّر عن صحيحك ِ
إلا
صحيحي .

***

تذكري
أنا من كَتبك ِ
بقلم ٍ
لا يلين .

***

تظاهري بالظمأ
أنت ِ
اكتفائي .

***

أستردّك ِ مني
كلما آن َ
اشتعالي .

***

تكاملي
الشيء شيئك ِ
و النوع ُ
نوعي .

***


أُقسم الآن
لا يعلو سؤالك ِ
على جوابي .

***

أعدك ِ
سأجعلك صمتي
حين تحتفين َ
بصوت ِ الآخرين .

***

أبصرك ِ تماما ً
أبصر ُ ما قبلك
و ما بعدك
كأنك عيني َ
الثالثة .

***

أصرفك ِ ببساطة
لست ِ
رصيداً لي .

***

أقترح ُ الآنَ
شمّك ِ
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